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एक अखबार हॉकर और हमारी सुबह, अखबार पढ़ने के शौकीन इसे जरूर पढ़ें

न्यूज़ मिथिला विशेष। बिकास झा : ‘छोटे घरों में अखबार देना आसान होता है, एक पैर पर साइकिल टिकाई और बैठे बैठे ही घंटी बजाकर फेंक दिया या फंसा दिया दरवाजे में और बड़े घरों में, आगे खुला मैदान, उसमे दो चार कुत्तों की जमात, जो देखते रोज हैं पर भौंकते भी रोज है। कितना भी जोर से फेंको, बरामदे तक पहुंचता नहीं और वह कुत्ता उसे फाड़ देता है। पहले रुको, फिर घंटी बजाओ, किसी के आने की प्रतीक्षा करो तब उन्हें दो, नहीं तो अगले दिन की चिड़-चिड़ झेलो।’ अपने फेसबुक वॉल पर ये आलेख पोस्ट किया पत्रकार प्रवीण दीक्षित ने, जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं :

इनसे ही रौशन है हमारी सुबह
सवेरे तय समय पर अखबार न मिले तो कुछ उलझन सी लगती है। यूं तो अखबार में ज्यादा कुछ नया नहीं होता पढ़ने को, आजकल तो सब कुछ टेलिविजन या इंटरनेट से ही पता चल जाता है, फिर भी अखबार की तलब तो लगती ही है। जब पहली चाय के साथ अखबार न हो तो चाय भी अक्सर बे-स्वाद सी लगती है। मौसम कैसा भी हो, बारिश जम के हो रही हो या कोहरे में हाथ को हाथ न सूझ रहा हो, फिर भी अखबार तय समय पर मिल जाए, यह उम्मीद रहती है और मिलता भी है।

अकसर जब विपरीत मौसम में अपने हॉकर को देखता हूं, अखबार देते हुए, उसकी निष्ठा और अपनी जिम्मेदारी के प्रति उसके लगाव को देखकर सम्मान उमड़ जाता है। अमूमन सभी अखबार देर रात में ही प्रेस से निकलते हैं। इनके निकलते ही इन हॉकर्स की दिनचर्या आरम्भ हो जाती है। अखबार के सभी पन्नों को क्रम से लगाना (हालांकि अब तो यह मशीन से ही संभव हो गया है), फिर उसके भीतर कोई न कोई विशेषांक रखना और प्रायः सभी अखबार के भीतर विज्ञापन के पैम्फलेट रखना, यही शुरुआत होती है, अखबार के हॉकर्स के काम की।

सारे अखबार जो उन्हें वितरित करने होते हैं उन्हें वह अपने क्षेत्र मे बांटने के क्रम में सजा लेते हैं। खबरों के इस बोझ को वह अपनी साइकिल पर लाद कर निकल पड़ते हैं, फेंकने को खबरें रोज रोज की, हमारे आपके घरों में। अखबार में क्या छपा है, इससे इतर उनके मन में साइकिल पर चलते चलते कुछ यूं चलता होगा- शर्मा जी के यहां जागरण और टाइम्स देना है, बाजपेई जी के यहां केवल हिन्दुस्तान। आहूजा साब के यहां कुत्ता न बैठा हो गेट की आड़ में। सरकार जी के यहां फिर वह आंटी खड़ी मिलेंगी हल्ला करते हुए कि, तुम अखबार पानी में क्यों फेंकते हो। सलूजा साहब कहेंगे, अखबार मोड़ कर मत दिया करो, सीधा सीधा डाला करो (बाद में रद्दी बेचते समय ज्यादा पैसे मिल जाते होंगे शायद)।
छोटे घरों में अखबार देना आसान होता है, एक पैर पर साइकिल टिकाई और बैठे बैठे ही घंटी बजाकर फेंक दिया या फंसा दिया दरवाजे में और बड़े घरों में, आगे खुला मैदान, उसमे दो चार कुत्तों की जमात, जो देखते रोज हैं पर भौंकते भी रोज है। कितना भी जोर से फेंको, बरामदे तक पहुंचता नहीं और वह कुत्ता उसे फाड़ देता है। पहले रुको, फिर घंटी बजाओ, किसी के आने की प्रतीक्षा करो तब उन्हें दो, नहीं तो अगले दिन की चिड़-चिड़ झेलो।

मेरे बारे में सोचता होगा कि टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान के तो पैसे देते हैं, उसके अलावा दो-तीन अखबार तो इन्हें मुफ्त कूपन से ही मिल जाते होंगे (खूब रद्दी बेचते होंगे)। अरे! नहीं भाई , ये प्रेस वाले जबरदस्ती कूपन पकड़ा जाते हैं तो क्या करें। रद्दी तो कभी हमने बेचीं ही नहीं। घर पर काम वाली ले जाती है , उसके बच्चे उससे लिफाफा बना बेचते हैं। साल के बारहों महीने एक सा काम, एक तय समय का रूटीन, मेरे ख्याल से इन हॉकर्स के अलावा और किसी भी काम का इतना सख्त रूटीन नहीं होता होगा।

गौर करने वाली बात यह है कि हर कोई चाहता है, मोहल्ले में अखबार सबसे पहले उसे ही मिले। जितनी तल्लीनता से और निशाना साध कर यह हॉकर्स अखबार दूसरे-तीसरे माले तक फेंक देते हैं, वह काबिले तारीफ है। अगर इन्हें शूटिंग प्रतियोगिता में भेजा जाये, शर्तिया मेडल ले कर ही लौटेंगे। अखबार की खुशबू हाथ में आते ही कितने लोगों की शारीरिक पाचन क्रिया तत्काल गुड़गुड़ाहट के साथ अपना दायित्व पूरा करने को तत्पर हो जाती है। बिना अखबार हाथ में आये तो मूड फिर बनता ही नहीं। कुछ का अखबार पढ़ते पढ़ते, उससे मुंह ढंक कर दोबारा सोने का मजा ही कुछ और है। कहीं कहीं क्रॉस वर्ड या सुडोकू कौन पहले हल कर डालेगा, इसका झगड़ा और कहीं तो सारे पन्ने अलग अलग बंट जाते हैं, कोई स्पोर्ट्स ले गया कोई सिटी विशेषांक और कोई मुखपृष्ठ। जो भी हो मुझे तो इन हॉकर्स में अपने काम के प्रति लगन, जिम्मेदारी , कंसंट्रेशन भरपूर दिखता है और याद्दाश्त तो इनकी गजब की होती है और निशाने का भी कोई जवाब नहीं और न ही निशानदेही का! शायद यूरोपियन देशों में इसीलिए बच्चों को अखबार वितरित करने का काम सौंपा जाता है, सेन्स ऑफ रेस्पान्सिबिलिटी डेवलप करने के लिए।
(साभार: प्रवीण दीक्षित की फेसबुक वॉल से)